धर्म

पराक्रम के कारक और सत्य के धारक भगवान श्री परशुराम जी

परशुराम का शाब्दिक अर्थ है- पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। यही तो भारतीयता का मूल गुणधर्म है, जो उनमें कूट-कूट कर भरे हुए हैं। उन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र और शास्त्र दोनों के विवेकसम्मत उपयोग की सीख दी, ताकि विविधताओं से भरे भारतीय समाज में वक्त और जरूरत के अनुरूप सनातन मान्यताओं को पुनर्स्थापित करते हुए उसे सही व सकारात्मक दिशा दी जा सके।

प्रतिवर्ष वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया को उनका जन्मोत्सव मनाया जाता है, जो कि इस साल 10 मई शुक्रवार हुआ है। इस दिन उन्हें विनम्रतापूर्वक याद किया जाता है और उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व की चर्चा की जाती है, ताकि भारतीय समाज अपने नैतिक दायित्व और लौकिक कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हो। यूँ तो दक्षिण भारत में उनकी मूर्ति पूजा की जाती है, जिसके दृष्टिगत उत्तर भारत में भी यह प्रचलन जोर पकड़ता जा रहा है।

 

जनश्रुतियों के मुताबिक, भगवान परशुराम का जन्म उत्तरप्रदेश में हुआ है। वह राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि ऋषि के पुत्र हैं। भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, जिन्हें भगवान हनुमानजी की तरह ही चिरंजीवी होने का आशीर्वाद प्राप्त है। भगवान शिव ने इनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर इन्हें फरसा दिया था, जिसे परशु भी कहा जाता है। इसी वजह से इन्हें परशुराम के नाम से जाना जाता है। जबकि इससे पूर्व इनका भी नाम राम ही था।

 

अक्षय तृतीया के दिन जन्म लेने के कारण ही इनकी शक्ति भी अक्षय थी। भगवान परशुराम, भगवान शिव और विष्णु के संयुक्त अवतार माने जाते हैं। शास्त्रों में उन्हें अमर माना गया है। भगवान परशुराम के स्मरण-मात्र से ही क्रोध का ज्ञान होता है, क्योंकि महर्षि दुर्वासा की तरह ही भगवान परशुराम भी क्रोधी स्वभाव के हैं। सीता स्वयंवर में जब शिव धनुष की महिमा भंग हुई, तब उनका क्रोध देखते ही बना। इस दौरान उन्होंने भगवान राम से कहा कि- “तुम राम हो, तो मैं परशुराम हूँ।” उनकी इस उक्ति में उनका पौरुष और आत्मविश्वास झलकता है, जो कि हर प्रकार की सफलता का मूल होता है।

 

लोक मान्यता है कि पापियों और अधर्मियों ने जब-जब भारतीय समाज पर हावी होने की कोशिश की, तब-तब भगवान परशुराम रणभूमि में आये और अपने फरसे से उनका सफाया कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मन, वचन और कर्म से पराक्रम पूर्वक तत्कालीन अशांत समाज में शांति पुनर्स्थापित की और लोगों को एक नई दिशा और जीवन दृष्टि दी। इसी के कारण आज तक उन्हें बरबस याद किया जाता है।

 

कहा भी जाता है कि यथा नाम तथा गुण, यानी कि जिसका जैसा नाम होगा, उसमें वैसे गुण स्वत: ही विकसित हो जाते हैं। इस मामले में भगवान परशुराम भी अग्रगण्य हैं। उन्होंने  अपने नाम के अनुरूप और एक योगी के रूप में समाज हित में, राष्ट्र हित में शस्त्र और शास्त्र दोनों के संतुलित और विवेक सम्मत उपयोग को सही ठहराया है। यही ब्राह्मणत्व भाव का सार भी है।

 

कहना न होगा कि समकालीन सियासी परिदृश्य में भारतीय समाज का इंजन समझे जाने वाले ब्राह्मण वर्ग के खिलाफ कतिपय क्षुद्र सियासी लोगों और उनके समूह द्वारा जो तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाई गई, उसने पूरे समाज का अहित किया है। हालांकि, ऐसा करने वाले लोग या उनका समूह वह सामाजिक आदर्श स्थापित नहीं कर पाया, जिसका अनुशरण समाज का हर व्यक्ति कर सके। या फिर जिसके लिए ब्राह्मण समाज या उसके नेतृत्व की तरह-तरह से आलोचना की जाती रही है।

 

दरअसल, ब्राह्मणवाद एक प्रबुद्ध सोच है, जो समग्र सामाजिक और सांसारिक हित का प्रबल पक्षधर रहता आया है। ब्राह्मण साहित्यों में स्पष्ट रुप से इसे महसूस किया जा सकता है। यह जन्मना जाति नहीं, बल्कि कर्मणा गुणबोधक-गुणबर्धक वर्ग है, जिसके नेतृत्वकारी और सलाहकारी पृष्ठभूमि से कुछ प्रतिस्पर्धी लोगों द्वारा ईर्ष्या की गई और वर्ग विशेष में इन्हें अमर्यादित ठहराया गया। जबकि ब्राह्मणों का मूल स्वभाव अक्षुण्ण रहा और निःस्वार्थ भाव से वे समाज और राष्ट्र सेवा में तल्लीन रहे।

 

लोकश्रुति है कि- “ब्राह्मण बदलते हैं तो नतीजे बदल जाते हैं। सारे मंजर सारे अंजाम बदल जाते हैं। कौन कहता है परशुराम फिर ‘पैदा’ नहीं होते। ‘पैदा’ तो होते हैं, बस नाम बदल जाते हैं।”

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