श्रीसती जी ने भगवान शंकर के वचनों का विश्वास क्यों नहीं किया?
सोचिए! अगर किसी पेड़ से उसका आधार, उसकी धरा ही उससे छिन जाये, तो उस वृक्ष के अस्तित्व की आप क्या ही कल्पना कर सकते हैं? ठीक ऐसा ही श्रीसती जी के साथ हो रहा था। उनसे जीवन में भले ही एक अपराध हुआ था। किंतु किसी के एक अपराध के चलते, उसके निन्यानवे पुण्यों को कीचड़ की भेंट चढ़ा देना, कहाँ का न्याय होगा? कारण कि श्रीसती जी ने भगवान शंकर के शब्दों पर जो विश्वास नहीं किया था, वह उनके भावों के कारण नहीं था। बल्कि यह संस्कार थे प्रजापति दक्ष के थे, जो कि श्रीसती जी को वंशानुगत प्राप्त हुए थे। शायद इसीलिए अभी तक भगवान शंकर ने भी श्रीसती जी को कोई श्राप नहीं दिया था। वे अभी भी चाह रहे थे, कि श्रीसती जी को मानसिक पीड़ा से न गुजरना पड़े। तभी तो वे पूरे मार्ग पर उन्हें प्रभु की विभिन्न कथायें सुनाते आ रहे थे। अगर श्रीसती जी माता सीता का रुप धारण न करती, तो निश्चित ही भगवान शंकर स्वप्न में भी उनका त्याग न करते।
लेकिन श्रीसती जी का हृदय इस पीड़ा से अत्यंत व्यथित था, कि भोलेनाथ अब उनके साथ मन से संबंध ही तोड़ गये हैं। पति का पत्नी से, स्वाभाविक रुप से रुष्ट होना तो सब परिवारों में होता है। किंतु किसी कटे अंग की भाँति, किसी को अपने जीवन से ही निकाल देना, यह निश्चित ही कष्टप्रद विषय है। आपका त्याग संसार के किसी साधारण व्यक्ति ने किया हो, तो उसका इतना दुख भी न हो। किंतु अगर त्यागने वाले स्वयं ईश्वर ही हों, तो सोचिए दुख कितना बड़ा होगा? और श्रीसती जी इस दुख को जी रही थी, कि उन्होंने भगवान शंकर के वचनों पर विश्वास नहीं किया। वे बार-बार स्वयं को धिक्कार रही हैं। उनका एक-एक पल, एक-एक युग के समान बीत रहा है। कोयल की मीठी कू-कू भी उनके कानों में विष घोल रही थी। दूर-दूर तक, कहीं कोई अपना दिखाई नहीं दे रहा था। दिखाई देता भी कैसे, जिससे भगवान ही मुख मोड़ ले, उसके साथ फिर भले ही संपूर्ण जगत खड़ा हो, वह अकेला ही होता है। इस अकेलेपन का सन्नाटा ऐसा कंटीला होता है, कि उसे सहना किसी के भी वश की बात नहीं होती है।
श्रीसती जी प्रत्येक दिवस नहीं, बल्कि प्रत्येक क्षण प्रतीक्षा करती, कि कब भगवान शंकर समाधि से बाहर आयें, ओैर कब वे मुझे क्षमा करें। क्षमा न भी करें, भले ही इस धरा का सबसे पीड़ादायक दण्ड़ ही मुझे दे दें। किंतु एक ही प्रर्थना, कि वे मेरा त्याग न करें। श्रीसती जी पल प्रतिपल ऐसे ही आशायों के महलों का सृजन करती, और स्वयं ही अपने हाथों से उन्हें ध्वस्त कर देती। ऐसे करते-करते हजारों ही वर्ष बीत गये। किंतु श्रीसती जी के तपते हृदय के तल पर कृपा की बारिश न हुई। अंततः श्रीसती जी ने भगवान श्रीराम जी से ही प्रार्थना की-
‘तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी।
छूटउ बेगि देह यह मोरी।।
जौं मोरें सिव चरन सनेहू।
मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहु।।’
हे प्रभु! अगर आप सच में दीन दयालु हैं, तो मैं हाथ जोड़ कर आपसे विनती करती हुँ, कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाये। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है, और मेरा प्रेम मन, वचन और कर्म से सत्य है, तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह असहाय विपत्ति दूर हो जाये।
श्रीसती जी ऐसे ही अथाह दुख के सागर में डूबी गोते खा रही थी। उनको इतना दारुण दुख था, कि कहा नहीं जा सकता था। आखिरकार वह समय भी आ गया था, कि जब भगवान शंकर जी को समाधि से बाहर आना था। जी हाँ! सत्तासी हजार वर्षों के पश्चात भगवान शंकर समाधि से बाहर आ, अपने नेत्र खोलते हैं। वे उठते ही राम नाम का जप करने लगते हैं। इससे श्रीसती ने जाना, कि भोलेनाथ समाधि से जाग गये हैं। श्रीसती जी ने भगवान शंकर को प्रणाम किया। भगवान शंकर बिल्कुल सहज भाव में थे। उन्होंने श्रीसती से पूर्व विषय पर कोई चर्चा नहीं की। वे भक्ति भाव में थे, और श्रीसती जी को श्रीहरि जी की रसमयी कथायें कहने लगे। इस सब के बीच, एक ही बात अलग सी हुई थी, कि इस बार श्रीसती जी को, भोलनाथ ने अपने साथ बराबर सिला पर नहीं बिठाया था। भोलनाथ ने अपने सामने ही उन्हें बैठने के लिए कहा। मानों श्रीसती जी से कहना चाह रहे हों, कि ‘हे सती! मेरे साथ बैठने में लाभ नहीं है। मेरे सामने ही बैठो। कारण कि मेरे साथ बैठने में, तुम पर मेरी दृष्टि नहीं रहती और सामने रहने में तुम से दृष्टि हट नहीं सकती। दृष्टि में रहोगी, तो हो सकता है, कि मैं तुम्हें कभी फिर से भटकने से रोक पाऊँ।’
श्रीसती जी चुपचाप प्रभु की कथायों को श्रवण कर रही हैं। आगे प्रसंग क्या करवट लेता है, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।