धर्म

प्रकृति, शिव और समाज से जोड़ती है कांवड़ यात्रा

कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार। अर्थात् ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमण करे वह कांवड़िया। प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवड़िए दूर-दराज से आते हैं और अपने आस-पास के स्थानों से गंगा जल भरते हैं, तत्पश्चात् पदयात्रा कर अपने-अपने स्थानों को वापस लौट जाते हैं।

इसी यात्रा को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। फिर चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है, और शिव जी से अपनी और अपनों की सुख शांति की प्रार्थना की जाती है। कहने के लिए तो ये बस एक धार्मिक आयोजन मात्र है, लेकिन इसका सामाजिक और धार्मिक महत्व बहुत है। इसका सामाजिक सरोकार भी हैं।

कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है। जल आम आदमी के साथ-साथ पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारों-लाखों तरह के कीड़े-मकोड़ों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक तत्व है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है।

कांवड़िए जलस्रोत से एक बार जल भरकर उसे अभीष्ट कर्म के पूर्व अर्थात् शिवजी को अर्पण करने के पहले भूमि पर नहीं रखते हैं। इसके मूल में भावना यह है कि जलस्रोत से प्रभु को सीधे जोड़ा है जिससे धारा प्राकृतिक रूप से उन पर बनी रहे एवं उनकी कृपा हमारे ऊपर भी सतत् धारा के अनुसार बहती रहे जिससे संसार सागर को सुगमता से पार किया जा सके।

भोलेनाथ के भक्त यूं तो साल भर कांवड़ चढ़ाते रहते हैं, लेकिन सावन में इसकी धूम कुछ ज्यादा ही रहती है क्योंकि यह मास भगवान शिव को समर्पित है। अब तो उत्तर भारत में खासतौर पर दिल्ली-एनसीआर, पश्चिमी व पूर्वी यूपी में कांवड़ यात्रा एक पर्व कुंभ मेले के समान एक महाआयोजन का रूप ले चुकी है। काशी और देवघर में भी कांवड़ यात्रा का खासा महत्व है। पिछले डेढ़ दशक में कांवड़ यात्रा  की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है।

बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान शिव पर सबसे पहले कांवड़ किसने चढ़ाया और इसकी शुरुआत कैसे हुई। कुछ कथाओं के भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी देशभर में काफी प्रचलित है।

कांवड़ की परंपरा चलाने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए। पौराणिकता मान्यता है कि कांवड़ यात्रा एवं शिवपूजन का आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध हैै। महाकवि कालिदास ने हिमालय को शिव का प्रतिरूप बताते हुए इसके सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व को रेखांकित किया है। यों भी कह सकते हैं कि कांवड़ यात्रा शिव के कल्याणकारी रूप और निष्ठा के नीर से उसके अभिषेक को तीव्र रूप में प्रतिध्वनित करती है।

उत्तर भारत में भी गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवड़िए कहते थे। ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे।

दरअसल, यह एक प्रचलित परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनों महत्व है। इससे एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। इसके अलावा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं के आदान-प्रदान का बोध होता था, लेकिन अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया।

कांवड़ यात्रा का धार्मिंक महत्व तो जगजाहिर है, लेकिन इस कांवड़ यात्रा से वैज्ञानिकों ने उत्तम स्वास्थ्य भी जोड़ दिया है। प्रकृति के इस खूबसूरत मौसम में जब चारों तरफ हरियाली छाई रहती है तो कांवड़ यात्री भोलेनाथ को जल चढ़ाने के लिए पैदल चलते हैं।

पैदल चलने से हमारे आसपास के वातावरण की कई चीजों का सकारात्मक प्रभाव हमारे मनमस्तिष्क पर पड़ता है। चारों तरफ फैली हरियाली आंखों की रोशनी बढ़ाती है। वहीं ओस की बूंदे नंगे पैरों को ठंडक देती हैं तथा सूर्य की किरणें शरीर को रोगमुक्त बनाती हैं।

ये यात्रा प्रकृति और मानव के संबंधों में नई उष्मा, निकटता एवं प्रेम को बढ़ाती है। डॉक्टरों के मुताबिक  धार्मिक चेतना से मानव जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कांवड़ यात्रा स्वास्थ्यप्रद होती है। पैदल, नाचते-गाते और दौड़ लगाते हुए शिवभक्त जाते हैं। इससे शरीर में खुशी के हार्मोंस जेनरेट होते हैं। व्यक्ति तनाव मुक्त हो जाता है। पैदल चलने से मांसपेशियां मजबूत होती हैं और हार्ट और फेफड़ों को शुद्ध ऑक्सीजन मिलती है।

पवित्र गंगा को स्वर्ग अर्थात् पहाड़ों से पृथ्वी अर्थात् मैदानी इलाकों में लाने के लिए महान शिव के द्वारा जिस श्रमदान का आयोजन किया गया वह उस समय अत्यंत दुष्कर कृत्य रहा होगा। पर्वतों के बीच गमन करना और श्रमदान करना निश्चित ही कोई सुगम कार्य नही रहा होगा। कितने ही किसान-श्रमिक कर्तव्य की बलिवेदी पर न्योछावर हुए होंगे।

यह बात वह शिव भक्त कांवड़िये आसानी से समझ सकते हैं जो गोमुख या उसके भी ऊपर ऊंचाइयों से जल लाने हेतु पैदल पद यात्रा करते हैं। उसी महान श्रमदान की स्मृति आज भी कांवड़ के विशाल आयोजन में संरक्षित दिखाई पड़ती है।

संभवतः हताहत तथा कालकलवित हुए कृषकों व श्रमिकों की आत्मा की शांति की कामना के लिए उसी पवित्र जल से शिव को जलाभिषेक करने की उज्जवल परम्परा का विकास कांवड़ यात्रा मे कहीं न कहीं दृष्टिगोचर होता है। इस तथ्य से यह भी जाना जा सकता है कि जो जल हमें आज इतनी आसानी से प्राप्त है वह कितना मूल्यवान है।

नदियों से दूर-दराज रहने वाले लोगों को पानी का संचय करके रखना पड़ता है। हालांकि मानसून काफी हद तक इनकी आवश्यकता की पूर्ति कर देता है तदापि कई बार मानसून का भी भरोसा नहीं होता है।

ऐसे में बारहमासी नदियों का ही आसरा होता है, इसके लिए सदियों से मानव अपने इंजीनियरिंग कौशल से नदियों का पूर्ण उपयोग करने की चेष्टा करता हुआ कभी बांध तो कभी नहर तो कभी अन्य साधनों से नदियों के पानी को जल विहिन क्षेत्रों में ले जाने की कोशिश करता रहा है। लेकिन आबादी का दबाव और प्रकृति के साथ मानवीय व्यभिचार की बदौलत जल संकट बड़े रूप में उभर कर आया है।

धार्मिक संदर्भ में कहें तो इंसान ने अपनी स्वार्थपरक नियति से शिव को रूष्ट किया है। कांवड़ यात्रा का आयोजन अति सुन्दर बात है। कांवड़ यात्रा में शामिल हर कांवड़िए को इस महत्वपूर्ण यात्रा महत्ता व अंतर्निहित संदेश को समझना होगा। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड़ यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हैं वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं।

वास्तव में, धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड़ यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। कांवड़ यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत-खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु-पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराएं तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।

विभिन्न धर्माचार्यों का भी यही मत है शिव की सच्ची उपासना केवल पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन से ही संभव है। कलियुग में विषपान करने के लिए शिव ने ही पौधों का रूप लिया है। गंगा सहित सभी नदियां शिव की तरह जीवनदायिनी हैं। इन्हें बचाना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।

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